Wednesday, 13 July 2016

अंतर्द्वंद


मंद मंद मंद मंद
चल रहा है अंतर्द्वंद।

बात हो कर्तव्य की,
या गर्त में भविष्य की,
या फिर अधूरे सत्य की,
सब फन उठाये डसने को तैयार,
बुरे समय का तीक्ष्ण प्रहार,
खुले पंखों की उड़ान सा नहीं है आनन्द।
मंद मंद मंद मंद,
चल रहा है अंतर्द्वंद।

मेरा मुझसे छीन लिया,
धनी से मुझको दीन किया,
भावों से भी विहीन किया,
मैं मैं न हो पाया, तो मेरा होना बेकार,
बुरे समय का तीक्ष्ण प्रहार,
किससे और कैसा है ये प्रतिद्वंद?
मंद मंद मंद मंद,
चल रहा है अंतर्द्वंद।

गली गली लुटता है चैन,
मन में द्वेष है कटु है बैन,
आत्मा मर गयी, निर्लज्ज हुए नैन,
मानव लिख रहा है मानवता का उपसंहार,
बुरे समय का तीक्ष्ण प्रहार,
इंसानियत के कपाट सारे, आज हुए बंद।
मंद मंद मंद मंद,
चल रहा है अंतर्द्वंद।

पीयूष सिंह

भूत, वर्तमान और भविष्य

वह धुंधला सा, काला सा, भयानक सा जो होता प्रतीत है,
बस अभी अभी गुजरा है, वो मेरा अतीत है।

आज जो ये ख्याति है, उपलब्धि है और जो ये सम्मान है,
जो अतीत अभी गुजरा था उसी का वर्तमान है।

दूर गगन में जो सितारें हैं, पर्वतों के शिखर हैं, वही मेरा लक्ष्य है,
जो वर्तमान चल रहा है, उसी का भविष्य है।

भूत, वर्तमान, भविष्य का ये सफ़र यूँ ही चलता रहेगा,
कर्म ही सर्वोच्च था , कर्म ही सर्वोच्च है, कर्म ही सर्वोच्च रहेगा।

पीयूष सिंह

Sunday, 3 July 2016

हमारा कोई शीर्षक नहीं

हैसियत नहीं मेरी सितारों को देख सकने की,
बहुत दिनों बाद नींद आई तो थोड़ी हिम्मत कर ली
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आज मैं लुट गया कि छिन गए मेरे शब्द मुझसे,
सारे बाज़ार में ये बिक रहें हैं किसी और के नाम से।
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ये ज़िन्दगी है साहब, निभानी ही पड़ेगी,
वरना अब जीने में रक्खा क्या है?
कोरी आँखों ने नहीं देखें हैं सपने,
जो सच न हो सकें, उन सपनों में रक्खा क्या है?
जब छीन लिया सब कुछ तब तो पूछा नहीं,
अब तरस भरी खोखली सांत्वना में रक्खा क्या है?
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मैं डर जाता हूँ जब आइना देखता हूँ
कहीं फिर से न पूछ ले वो सवाल पेंचीदे
मांग न ले हिसाब ज़िन्दगी का,
खुशियाँ जो खर्च हो गयी उनकी रसीदें!!!
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ज़िन्दगी, ये तेरी जिरह करने की आदत अजीब है
खुशियाँ मिलती हैं इक लम्बी बहस के बाद।

पीयूष सिंह

एक बंधन ये भी

इस कलयुग में जहाँ भाई भाई का दुश्मन है, जहाँ भाई बहन को विदा करके भूल जाता है, जहाँ माँ को सदा यही चिंता रहती है कि उसके बेटे बड़े होकर मेरा तुम्हारा करने लगेंगे। उसी कलयुग में मेरी ये कविता उन भाइयों को, उन बहनों को समर्पित है जो एक अनोखे कभी न टूटने वाले बंधन से बंधे हुए हैं।
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हम लड़ सकते हैं, रूठ सकते हैं
मसखरी में कभी बोल झूठ सकते हैं
खुली चुनौती है उसको जो तोड़ना चाहे
आज़मा ले हुनर अपना, नहीं हम टूट सकते हैं
बहुत आयेंगे फोड़ने वाले, विष भरेंगे कानों में
आज़मा ले हुनर वो भी अपना, नहीं हम फूट सकते हैं

अम्मा तुम्हारे आँसू ये अनमोल हैं, इन्हें यूँ ही बेकार मत करो
तुम्हारे संस्कारों से बंधे हैं हमारे ये हाथ,
मर के भी ये नहीं छूट सकते हैं
राम लखन कह दूँ तो शायद अतिशयोक्ति न हो
मन से जुड़े हैं ये तार, नहीं टूट सकते हैं।

पीयूष सिंह

Saturday, 25 June 2016

उलझन

चाल मेरी बेतरतीब है, शायद
अभी ठोकरें नहीं खाई इतनी मैंने कि मैं चलना सीख जाऊँ।
कहते हैं अब भी संभल जाओ, पर शायद,
अभी गिरा नहीं मैं इतनी बार कि मैं संभलना सीख जाऊँ।
कहते हैं लोग कि छोड़ दो अपने आप को,
अभी और कितना बदलूँगा, कि मैं बदलना सीख  जाऊँ।
क्यों दूसरों को देख कर सीख नहीं लेता,
अभी और कितना छला जाउँगा कि मैं छलना सीख जाऊँ।
चलना, संभलना, बदलना, छलना, अब बस भी करो
या तो ये मुझे छोड़ दें, या तो मैं इनसे निकलना सीख जाऊँ।

पीयूष सिंह

Tuesday, 21 June 2016

वीरगाथा

मेरी ये कविता उन सभी साधारण व असाधारण लोगों को समर्पित है जिनकी वीरागाथायें हमें प्रेरित करती हैं निर्भीकता से कर्तव्य पथ पर बढ़ने की और हर परिस्थिति में डट कर खड़े रहने की।

वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।
वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।

हाथ में लेकर चले तिरंगा भारत माता के ये लाल,
आगे कर दी अपनी छाती बनकर सारे देश की ढाल,
पहले देश की आन बाद में, अपनी जान ये आती है,
इसको लेकर रत्ती भर भी मन में कभी संशय न हो।
वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।

अपने अपने खेल में दिग्गज, इन पर भारी जिम्मेदारी,
प्रतिद्वंदी मुँह की खायेगा, निश्चित हो ये अबकी बारी,
नाम देश का ऊँचा करना, बस इतना सा अरमान है,
झोंक दो पूरा दम खम रण में, जय हो, पराजय न हो।
वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।

मन में लेकर कठिन इरादा और मुख पर भोली मुस्कान,
हठ कर बैठा है वो मन में, तोड़ेगा प्रस्तर चट्टान
जो पहले दुर्गम था, हठ से मार्ग वहाँ बन आया है,
ऐसे ज़िद्दी की फिर बोलो कैसे जय जय न हो?
वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।

उद्यम से जो सिद्ध हैं करते अपने सारे कार्य अधूरे,
नींद उन्हें कहाँ आती है जब तक सब हो जाएँ न पूरे,
कैसी भी हों परिस्थितियाँ पर घुटने टेक नहीं सकते ये,
ऐसे उद्यमी का कहो! संभव कैसे, भाग्योदय न हो?
वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।

पीयूष सिंह

Friday, 17 June 2016

जीवन को लकवा मार गया

खा गयी गरीबी बचपन को
मजबूरी निगल गयी स्वाभिमान को
भूख ने थोड़ी चोरी सिखा दी
हालात पी गए खुशियों को
और इस तरह पूरे जीवन को लकवा मार गया।

पीयूष सिंह

Tuesday, 14 June 2016

भाग्य और परिश्रम

जीवन अनिश्चिताओं का नाम है
जो कभी भी पलट जाए, भाग्य उसी का नाम है।
परिश्रम जीवन का कायाकल्प है,
विषम परिस्थितियों में, ये ही इक्मात्र विकल्प है।
भाग्य भरोसे सब ठीक होगा,
यदि ऐसा लगता है, तो ये सिर्फ आपका भ्रम है।
भाग्य भरोसे आप सिर्फ बैठ सकते हैं,
पर जो चलना सिखाता है, वो कठिन परिश्रम है।

स्वर्ण पात्र में खाने वालों
राज भोग कब तक खाओगे?
नर्म बिछौना निद्रा हेतु
चैन से कब तक सो पाओगे?
भाग्य तुम्हारा अभी प्रबल है
पर कब तक इसके गुण गाओगे?
भाग्य भरोसे बैठ कहो तुम,
कब तक यूँ ही इतराओगे?
ये बदलेगा करवट जिस दिन,
उस दिन तुम मुँह की खाओगे!!!
चेतोगे जितना जल्दी तुम,
उतना जल्दी बच पाओगे।
जीवन के रण में तुम बोलो,
ये कठिन चुनौती ले पाओगे?
साथ छोड़ कर भाग्य का तुम
राह परिश्रम की चल पाओगे?
देकर अपना लहू पसीना,
कंटक गले लगा पाओगे?
लिखकर भाग्य स्वयं का तुम क्या
भाग्य विधाता बन पाओगे?
सफलता परिश्रम से जिस दिन
तुम आलिंगन कर पाओगे?
जीवन के रण के शूरवीर
उसी दिन तुम कहलाओगे।

पीयूष सिंह

Saturday, 14 May 2016

एक मृतक का जीवन

नेत्र रिक्त हैं,
नीर से, स्वप्न से,
आशाओं से, इच्छाओं से,
पीड़ाओं से, संवेदनाओं से;
एक मृत सी जीवित काया
जिसमें जीवन मात्र साँसों का नाम है।
यूँ तो वह पुरुष कमाता भी और खाता भी है,
पर,
उसकी कमाई में जीवन का यथार्थ नहीं, सिर्फ जीवन है;
उसके भोजन में जीवन का स्वाद नहीं, सिर्फ जीवन है;
लक्ष्यहीन, दिशाहीन सी चल रही है
सिर्फ !!चल रही है....

पीयूष सिंह