Sunday, 3 July 2016

एक बंधन ये भी

इस कलयुग में जहाँ भाई भाई का दुश्मन है, जहाँ भाई बहन को विदा करके भूल जाता है, जहाँ माँ को सदा यही चिंता रहती है कि उसके बेटे बड़े होकर मेरा तुम्हारा करने लगेंगे। उसी कलयुग में मेरी ये कविता उन भाइयों को, उन बहनों को समर्पित है जो एक अनोखे कभी न टूटने वाले बंधन से बंधे हुए हैं।
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हम लड़ सकते हैं, रूठ सकते हैं
मसखरी में कभी बोल झूठ सकते हैं
खुली चुनौती है उसको जो तोड़ना चाहे
आज़मा ले हुनर अपना, नहीं हम टूट सकते हैं
बहुत आयेंगे फोड़ने वाले, विष भरेंगे कानों में
आज़मा ले हुनर वो भी अपना, नहीं हम फूट सकते हैं

अम्मा तुम्हारे आँसू ये अनमोल हैं, इन्हें यूँ ही बेकार मत करो
तुम्हारे संस्कारों से बंधे हैं हमारे ये हाथ,
मर के भी ये नहीं छूट सकते हैं
राम लखन कह दूँ तो शायद अतिशयोक्ति न हो
मन से जुड़े हैं ये तार, नहीं टूट सकते हैं।

पीयूष सिंह

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