जब बिना कुछ कहे ही,
सब कुछ कह दिया जाए।
जब किसी को कुछ बताया न हो,
पर उसको सब कुछ पता हो।
जब सब कोई सब कुछ जानता हो,
पर फिर भी कुछ बाहर न हो।
जब प्रत्यक्षता में तो शांति हो,
पर अप्रत्यक्षता में उमंग नृत्य करती हो।
जब पंछी स्वच्छंद गीत न गा कर,
मन में ही प्रफुल्लित हो गुनगुनाते हों।
जब शब्दों का महत्व समाप्त हो,
और मौन भाषा प्रयुक्त हो।
जब पूरा दिन स्वप्नों में बीते,
पर फिर भी स्वपनिल जीवन की इच्छा हो।
जब दूर होकर भी,
पास होने का एहसास हो।
जब आँसुओं में भी,
खुशी का आभास हो।
जब भावनाओं को महसूस किया जाए।
जब दूर से ही मन को पढ़ लिया जाए।
जब अनुरोधों को टाला न जा सके।
जब अधिकार होने का आभास हो।
तब आप ये समझिए कि
आप पावनता की ओर बढ़ रहे हैं।
पावनता! मन और मस्तिष्क की।
एक पावन सोच,
जो प्रेम और स्नेह का संचार करती है।
ऐसी सोच में लिप्त;मगन होकर,
मन बढ़ चला है,
ऐसी फुलवारी की ओर
जहाँ पावनता की सुगंध सर्वत्र फैली है,
जहाँ माली हर्ष का हार लिए अभिनंदन करता है,
जहाँ आनन्द के फूल,
प्रेम सुधा से सिंचित होकर खिलते हैं,
जहाँ कष्ट के कंटकों के लिए स्थान नहीं है।
ऐसी फुलवारी में जाने को,
मन उत्सुक है, व्याकुल है।
इसकी संभावना शायद शून्य हो,
या फिर सम्पूर्ण हो,
ये सोचे बिना
मन चल पड़ा है
और निरंतर चलता रहेगा।
पीयूष सिंह
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