Sunday, 22 March 2009

पागलों का विश्व

इक पागल, पागल से कहे
कि मैं पागल,
ये सब जानें और सब कहें
पर तू पागल !
ये सब जानें और कोई न कहे।
क्यों? क्योंकि,
सब डरते हैं सत्य के बाहर आने से
सब डरते हैं भेद खुल जाने से।
अरे!
जो देखकर अंधा हो,
जो सुनकर बहरा हो,
जो बोलकर गूँगा हो,
जो हाथ पैर होकर लाचार हो,
वो पागल ही तो है।
कोई मोह माया में पागल,
कोई ऊँच नीच में पागल,
कोई पागल है कुछ पाने में,
कोई पागल है कुछ बचाने में,
कोई हृदय से पागल,
कोई अपने दर्जे से पागल,
अरे सब के सब पागल ही तो हैं।
लेकिन हम!
हम मोह माया से दूर,
हम ऊँच नीच से दूर,
हम खोने पाने से दूर,
हम सुख दुख से दूर,
हम मस्ती के पुजारी
अनभिज्ञ, अन्जान
पागल हैं तुम्हारी नजरों में।
अरे हमारे लिए तो पागलखाने हैं,
पर तुम्हारा पागलखाना कहाँ है?
शायद ये समूचा विश्व !
हा! हा! ये पागलों का विश्व ! ! !

पीयूष सिंह

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