Saturday, 25 June 2016

उलझन

चाल मेरी बेतरतीब है, शायद
अभी ठोकरें नहीं खाई इतनी मैंने कि मैं चलना सीख जाऊँ।
कहते हैं अब भी संभल जाओ, पर शायद,
अभी गिरा नहीं मैं इतनी बार कि मैं संभलना सीख जाऊँ।
कहते हैं लोग कि छोड़ दो अपने आप को,
अभी और कितना बदलूँगा, कि मैं बदलना सीख  जाऊँ।
क्यों दूसरों को देख कर सीख नहीं लेता,
अभी और कितना छला जाउँगा कि मैं छलना सीख जाऊँ।
चलना, संभलना, बदलना, छलना, अब बस भी करो
या तो ये मुझे छोड़ दें, या तो मैं इनसे निकलना सीख जाऊँ।

पीयूष सिंह

Tuesday, 21 June 2016

वीरगाथा

मेरी ये कविता उन सभी साधारण व असाधारण लोगों को समर्पित है जिनकी वीरागाथायें हमें प्रेरित करती हैं निर्भीकता से कर्तव्य पथ पर बढ़ने की और हर परिस्थिति में डट कर खड़े रहने की।

वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।
वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।

हाथ में लेकर चले तिरंगा भारत माता के ये लाल,
आगे कर दी अपनी छाती बनकर सारे देश की ढाल,
पहले देश की आन बाद में, अपनी जान ये आती है,
इसको लेकर रत्ती भर भी मन में कभी संशय न हो।
वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।

अपने अपने खेल में दिग्गज, इन पर भारी जिम्मेदारी,
प्रतिद्वंदी मुँह की खायेगा, निश्चित हो ये अबकी बारी,
नाम देश का ऊँचा करना, बस इतना सा अरमान है,
झोंक दो पूरा दम खम रण में, जय हो, पराजय न हो।
वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।

मन में लेकर कठिन इरादा और मुख पर भोली मुस्कान,
हठ कर बैठा है वो मन में, तोड़ेगा प्रस्तर चट्टान
जो पहले दुर्गम था, हठ से मार्ग वहाँ बन आया है,
ऐसे ज़िद्दी की फिर बोलो कैसे जय जय न हो?
वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।

उद्यम से जो सिद्ध हैं करते अपने सारे कार्य अधूरे,
नींद उन्हें कहाँ आती है जब तक सब हो जाएँ न पूरे,
कैसी भी हों परिस्थितियाँ पर घुटने टेक नहीं सकते ये,
ऐसे उद्यमी का कहो! संभव कैसे, भाग्योदय न हो?
वीर वो होता है, जिसे रण में किसी का भय न हो।

पीयूष सिंह

Friday, 17 June 2016

जीवन को लकवा मार गया

खा गयी गरीबी बचपन को
मजबूरी निगल गयी स्वाभिमान को
भूख ने थोड़ी चोरी सिखा दी
हालात पी गए खुशियों को
और इस तरह पूरे जीवन को लकवा मार गया।

पीयूष सिंह

Tuesday, 14 June 2016

भाग्य और परिश्रम

जीवन अनिश्चिताओं का नाम है
जो कभी भी पलट जाए, भाग्य उसी का नाम है।
परिश्रम जीवन का कायाकल्प है,
विषम परिस्थितियों में, ये ही इक्मात्र विकल्प है।
भाग्य भरोसे सब ठीक होगा,
यदि ऐसा लगता है, तो ये सिर्फ आपका भ्रम है।
भाग्य भरोसे आप सिर्फ बैठ सकते हैं,
पर जो चलना सिखाता है, वो कठिन परिश्रम है।

स्वर्ण पात्र में खाने वालों
राज भोग कब तक खाओगे?
नर्म बिछौना निद्रा हेतु
चैन से कब तक सो पाओगे?
भाग्य तुम्हारा अभी प्रबल है
पर कब तक इसके गुण गाओगे?
भाग्य भरोसे बैठ कहो तुम,
कब तक यूँ ही इतराओगे?
ये बदलेगा करवट जिस दिन,
उस दिन तुम मुँह की खाओगे!!!
चेतोगे जितना जल्दी तुम,
उतना जल्दी बच पाओगे।
जीवन के रण में तुम बोलो,
ये कठिन चुनौती ले पाओगे?
साथ छोड़ कर भाग्य का तुम
राह परिश्रम की चल पाओगे?
देकर अपना लहू पसीना,
कंटक गले लगा पाओगे?
लिखकर भाग्य स्वयं का तुम क्या
भाग्य विधाता बन पाओगे?
सफलता परिश्रम से जिस दिन
तुम आलिंगन कर पाओगे?
जीवन के रण के शूरवीर
उसी दिन तुम कहलाओगे।

पीयूष सिंह