Saturday, 23 April 2011

आत्मकथा : एक कमरे के घर में रहने वालों की

जो एक कमरे के घर में रहते हैं
उनके दिल अक्सर बड़े होते हैं
बातें पहले तो करते नहीं, और करी
तो बातों के पक्के बड़े होते हैं ।
दर से उनके खाली कोई नहीं जाता
जेबें खाली भले पड़ी हों, कुछ भी न हो देने को
पर दुआओं के धनी बड़े होते हैं ।
जो एक कमरे के घर में रहते हैं
उनके दिल अक्सर बड़े होते हैं ।

कमरे एक से दो भले न हो पायें
पर महलों के सपने बड़े होते हैं
सपना होगा सच, ये एक दिन
इसी कोशिश में बच्चे बड़े होते हैं ।
बच्चे भी शायद सब जान जाते हैं
नहीं कहेंगे चलने को मेले में, चुपचाप रहेंगे
इनके बच्चे भी कितने बड़े होते हैं ।
जो एक कमरे के घर में रहते हैं
उनके दिल अक्सर बड़े होते हैं ।

कोई इनका सगा हो न हो
पर ये सबके लिये खडे़ होते हैं
क्या बिगाड़ते हैं ये किसी का,
क्यों लोग इनके पीछे पड़े होते हैं ?
इसिलिये बडे़ कहते हैं शायद
गरीब को न सताओ, कोई नहीं जानता
भगवान किस रूप में खडे़ होते हैं ।
जो एक कमरे के घर में रहते हैं
उनके दिल अक्सर बड़े होते हैं ।


पीयूष सिंह

Sunday, 6 March 2011

ये इंसान मर चुका है

हर कोने में धूल पड़ी है
सन्नाटा भी गहरा है
धमाका जरा जोर से करना
ये इंसान बहरा है

लाल खून से रंगी हैं चीखें
सन्नाटे को चीर रहीं
पथराई इन आँखों में
एक बूँद भी नीर नहीं
अंधियारे में मार काट का
कैसा गोरख धंधा है?
सूरज जरा जोर से चमको
ये इंसान अंधा है

सब कुछ सामने हो कर भी
सबके मुख पर ताला है
न्याय की गुहार पर
सच का मुख काला है
कायरों की बस्ती में
सबके पास मूँगा है
तलवार डाल दो हलक में
ये इंसान गूँगा है

इंसानों के जलते घर और
आँच तापता इंसान है
इंसानों के इन कर्मों पर
पाषाण बना इंसान है
इंसानों से इंसान क्या
इतना डर चुका है?
जाओ जला दो किसी कोने में
ये इंसान मर चुका है

पीयूष सिंह

Sunday, 30 January 2011

वो महिला

वो महिला
सिर पर उठाए
कुछ ईंट अैर पत्थर
उस बड़ी इमारत से देखो
तो पूरी चींटी सी लगती है
चींटी : जो कभी भी मानव द्वारा
कुचल दी जाती है
पर वो चल रही है
इसलिए नहीं
कि किसी ने उसे कुचला नहीं
बल्कि इसलिए
कि उसमें दृढ़ता है विश्वास है।

वो महिला
बरतन माँज रही है
और कुछ टुकड़े रोटी के
इक्ट्ठे कर रखे हैं
शायद कोई भूखा है।

वो महिला
कपड़े धो रही है
और पुराने कपड़ों की चाह है
शायद कोई नंगा है।

वो महिला
आज शय्या पर लेटी है
उसका एकमात्र अपना
जिसके लिए उसने रोटी जुटाई
कपड़े जुटाए
चींटी से मानव बनाया
वो आज उसे छोड़
मानवों में व्यस्त है।

वो महिला
चींटी थी पर अफसोस न था
लेकिन अब,
उसका दृढ़ता और विश्वास

कुचला गया है।

वो महिला
अब मर चुकी है।


पीयूष सिंह

Sunday, 16 January 2011

तुम

नभ में घोर अंधकार के बाद
जो प्रभात आई है,
उसके पीछे तुम हो।
धरती पर सूखी बयार के बाद
जो वृष्टि आई है,
उसके पीछे तुम हो।
बाग में पतझड़ के बाद
जो हरयाली आई है,
उसके पीछे तुम हो।
बस्ती में वर्षों की सुन्सानियत के बाद
जो खु्शी की झंकार आई है,
उसके पीछे तुम हो।
इतने बुरे स्वप्नों के बाद
जो अच्छी नींद आई है,
उसके पीछे तुम हो।
होठों पर विषाद के बाद
जो हँसी आई है,
उसके पीछे तुम हो।
जीवन में इतने कंपन के बाद
जो स्थिरता आई है,
उसके पीछे तुम हो।
वर्षों की निष्क्रियता के बाद
जो नव क्राँति आई है,
उसके पीछे तुम हो।
कल्पना के सागर में शांति के बाद
जो नव तरंग आई है,
उसके पीछे तुम हो।
जीवन में इतनी तलाश के बाद
जो कविता आई है,
उसके पीछे तुम हो।

पीयूष सिंह