जब बिना कुछ कहे ही,
सब कुछ कह दिया जाए।
जब किसी को कुछ बताया न हो,
पर उसको सब कुछ पता हो।
जब सब कोई सब कुछ जानता हो,
पर फिर भी कुछ बाहर न हो।
जब प्रत्यक्षता में तो शांति हो,
पर अप्रत्यक्षता में उमंग नृत्य करती हो।
जब पंछी स्वच्छंद गीत न गा कर,
मन में ही प्रफुल्लित हो गुनगुनाते हों।
जब शब्दों का महत्व समाप्त हो,
और मौन भाषा प्रयुक्त हो।
जब पूरा दिन स्वप्नों में बीते,
पर फिर भी स्वपनिल जीवन की इच्छा हो।
जब दूर होकर भी,
पास होने का एहसास हो।
जब आँसुओं में भी,
खुशी का आभास हो।
जब भावनाओं को महसूस किया जाए।
जब दूर से ही मन को पढ़ लिया जाए।
जब अनुरोधों को टाला न जा सके।
जब अधिकार होने का आभास हो।
तब आप ये समझिए कि
आप पावनता की ओर बढ़ रहे हैं।
पावनता! मन और मस्तिष्क की।
एक पावन सोच,
जो प्रेम और स्नेह का संचार करती है।
ऐसी सोच में लिप्त;मगन होकर,
मन बढ़ चला है,
ऐसी फुलवारी की ओर
जहाँ पावनता की सुगंध सर्वत्र फैली है,
जहाँ माली हर्ष का हार लिए अभिनंदन करता है,
जहाँ आनन्द के फूल,
प्रेम सुधा से सिंचित होकर खिलते हैं,
जहाँ कष्ट के कंटकों के लिए स्थान नहीं है।
ऐसी फुलवारी में जाने को,
मन उत्सुक है, व्याकुल है।
इसकी संभावना शायद शून्य हो,
या फिर सम्पूर्ण हो,
ये सोचे बिना
मन चल पड़ा है
और निरंतर चलता रहेगा।
पीयूष सिंह
यह ब्लाग मेरे उन तमाम अनुभवों और विचारों का संग्रह है, जो अब तक या तो मेरे हृदय में कहीं छुपे थे या तो फिर मेरी डायरी के पन्नों में कहीं खो गये थे। यहाँ अपने विचार लिखने से मुझे असीम प्रसन्नता और संतोष होगा कि मैं अपनी बातें कहने में समर्थ हुआ। इस ब्लाग पर आने वाले सभी मेरे आगंतुक हैं। सभी आगंतुकों को मेरा प्रणाम और यहाँ समय देने के लिये धन्यवाद।
Thursday, 30 December 2010
Tuesday, 28 December 2010
मुर्दा जी उठा
ये कोई भूत नहीं
और न ही कोई चमत्कार है।
अरे! देखो लोगों देखो,
मुर्दों की बस्ती में,
इक मुर्दा जी उठा है।
सदियों से मृत इस बस्ती में,
आज एक मुर्दे ने
एक सपना देखा है
और फिर से जीने की चाह प्रकट की है।
तो क्या ये कोई गुनाह है?
गुनाह तो नहीं,
पर कुछ लोग, जो जीवित हैं,
इसे गुनाह मानते हैं,
और उनकी इस चाह को
कर्बिस्तान में दफनाते हैं।
शायद वे डरते हैं कि
अगर कहीं कोई मुर्दा जी उठा
तो वे मृत न हो जाएँ।
इसलिए जीने के लिए लड़ो
मगर प्यार से।
राह में तुम्हें जो कोई भी,
इस स्वरचित मृत्यु की
गोद में सुप्त दिखाई दे,
उसे जगाओ और ये समझाओ,
कि मनुष्य संसार में सिर्फ
एक बार ही मरता है।
पीयूष सिंह
और न ही कोई चमत्कार है।
अरे! देखो लोगों देखो,
मुर्दों की बस्ती में,
इक मुर्दा जी उठा है।
सदियों से मृत इस बस्ती में,
आज एक मुर्दे ने
एक सपना देखा है
और फिर से जीने की चाह प्रकट की है।
तो क्या ये कोई गुनाह है?
गुनाह तो नहीं,
पर कुछ लोग, जो जीवित हैं,
इसे गुनाह मानते हैं,
और उनकी इस चाह को
कर्बिस्तान में दफनाते हैं।
शायद वे डरते हैं कि
अगर कहीं कोई मुर्दा जी उठा
तो वे मृत न हो जाएँ।
इसलिए जीने के लिए लड़ो
मगर प्यार से।
राह में तुम्हें जो कोई भी,
इस स्वरचित मृत्यु की
गोद में सुप्त दिखाई दे,
उसे जगाओ और ये समझाओ,
कि मनुष्य संसार में सिर्फ
एक बार ही मरता है।
पीयूष सिंह
क्षण भर जीवन
हृदय में अंकित,
रक्त रंजित
एक चित्र है।
जिसमें मानव तड़पता हुआ
अंश भर जीवन को ललकता हुआ
दीख पड़ता है।
मृत्यु दो कदम पर है
पर जीवन की इच्छा चरम पर है
बस कुछ साँसें शेष हैं।
हो कोई चमत्कार
पुनः हो प्राणों का संचार
लेकिन प्राण हैं कि रुकते नहीं।
कटे अंग पड़े थे छिन्न भिन्न
देखकर उनको मन होता खिन्न
लोग लड़ रहे थे।
ढूँढ़ता है दोष अपना
क्यों टूटा उसका सपना
ये लहू लुहान बदन पड़ा है।
वो तो बस यूँ ही जा रहा था
अपने घर को जा रहा था
आज उसे नौकरी मिली थी।
उसके पास एक बच्चा दौड़ता आया
''मुझे बचाओ'' वह चिल्लाया
लोग उसे दौड़ा रहे थे।
उसने बच्चे को शरण दी
और लोगों ने उसे मृत्यु चरण दी
लोगों ने उसे काट दिया।
वह बेसुध गिरा पड़ा है
नहीं पास कोई खड़ा है
प्राण जाने को हैं।
आँखों में खुशियों की झिलमिल चमक
कुछ और देर जीने की ललक
वह खुशियाँ बाँटना चाहता है।
वह सोचता था पर्व होगा
सबको उस पर गर्व होगा
पर सब मिट गया।
पर्व मातम बन गया
खुशियों का दौर थम गया
आँसू ही आँसू होंगे।
क्षण भर की साँसें अब रुक गईं
खुली पलकें भी अब झुक गईं
वह मर चुका है।
पीयूष सिंह
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