Sunday, 30 January 2011

वो महिला

वो महिला
सिर पर उठाए
कुछ ईंट अैर पत्थर
उस बड़ी इमारत से देखो
तो पूरी चींटी सी लगती है
चींटी : जो कभी भी मानव द्वारा
कुचल दी जाती है
पर वो चल रही है
इसलिए नहीं
कि किसी ने उसे कुचला नहीं
बल्कि इसलिए
कि उसमें दृढ़ता है विश्वास है।

वो महिला
बरतन माँज रही है
और कुछ टुकड़े रोटी के
इक्ट्ठे कर रखे हैं
शायद कोई भूखा है।

वो महिला
कपड़े धो रही है
और पुराने कपड़ों की चाह है
शायद कोई नंगा है।

वो महिला
आज शय्या पर लेटी है
उसका एकमात्र अपना
जिसके लिए उसने रोटी जुटाई
कपड़े जुटाए
चींटी से मानव बनाया
वो आज उसे छोड़
मानवों में व्यस्त है।

वो महिला
चींटी थी पर अफसोस न था
लेकिन अब,
उसका दृढ़ता और विश्वास

कुचला गया है।

वो महिला
अब मर चुकी है।


पीयूष सिंह

Sunday, 16 January 2011

तुम

नभ में घोर अंधकार के बाद
जो प्रभात आई है,
उसके पीछे तुम हो।
धरती पर सूखी बयार के बाद
जो वृष्टि आई है,
उसके पीछे तुम हो।
बाग में पतझड़ के बाद
जो हरयाली आई है,
उसके पीछे तुम हो।
बस्ती में वर्षों की सुन्सानियत के बाद
जो खु्शी की झंकार आई है,
उसके पीछे तुम हो।
इतने बुरे स्वप्नों के बाद
जो अच्छी नींद आई है,
उसके पीछे तुम हो।
होठों पर विषाद के बाद
जो हँसी आई है,
उसके पीछे तुम हो।
जीवन में इतने कंपन के बाद
जो स्थिरता आई है,
उसके पीछे तुम हो।
वर्षों की निष्क्रियता के बाद
जो नव क्राँति आई है,
उसके पीछे तुम हो।
कल्पना के सागर में शांति के बाद
जो नव तरंग आई है,
उसके पीछे तुम हो।
जीवन में इतनी तलाश के बाद
जो कविता आई है,
उसके पीछे तुम हो।

पीयूष सिंह