Sunday, 6 March 2011

ये इंसान मर चुका है

हर कोने में धूल पड़ी है
सन्नाटा भी गहरा है
धमाका जरा जोर से करना
ये इंसान बहरा है

लाल खून से रंगी हैं चीखें
सन्नाटे को चीर रहीं
पथराई इन आँखों में
एक बूँद भी नीर नहीं
अंधियारे में मार काट का
कैसा गोरख धंधा है?
सूरज जरा जोर से चमको
ये इंसान अंधा है

सब कुछ सामने हो कर भी
सबके मुख पर ताला है
न्याय की गुहार पर
सच का मुख काला है
कायरों की बस्ती में
सबके पास मूँगा है
तलवार डाल दो हलक में
ये इंसान गूँगा है

इंसानों के जलते घर और
आँच तापता इंसान है
इंसानों के इन कर्मों पर
पाषाण बना इंसान है
इंसानों से इंसान क्या
इतना डर चुका है?
जाओ जला दो किसी कोने में
ये इंसान मर चुका है

पीयूष सिंह